कानों में जाने क्या कहती हंसती जाती पुरवाई
यादों की महफिलें सजाती महकी महकी पुरवाई
जेठ माह की गर्मी बीती जलता था जैसे तनमन
मन में कैसी पुलक जगाती इठलाती है पुरवाई
सखियों के संग लग गए झूले संग गाती है पुरवाई
फ़िर आयेंगे मेरे साजन आस जगाती पुरवाई
बहुत जली मै बिरहा में अब तो थोड़ा हंस लूँ गलूं
शायद ऐसा ही कुछ सोचे मुझे छेड़ती पुरवाई
किसको क्या मालूम की उनबिन कैसे काटे मैंने
अब सूने जीवन में खुशियों के रंग भर रही पुरवाई