Saturday, February 13, 2010

प्रिय तुम मेरी कविता हो

प्रिय तुम मेरी कविता हो
तेरे दो चंचल मुग्ध नयन
जब शर्मा कर झुक जाते हैं
मन के आंगन में सपनों के
तब फूल सभी खिल जाते हैं
लगती उर्वशी या रम्भा हो
प्रिय तुम मेरी कविता हो
लहराते अंचल को जब तुम
बाँहों में बांध कर चलती हो
तब इन्द्र धनुष भी तेरे संग
चलने को जैसे मचलता हो
मादक सी मस्त हवा हो तुम
प्रिय तुम मेरी कविता हो
बिखरी जुल्फों के बीच कभी
मुख चाँद सा तेरा दीखता है
लगता है घने बादलों से
कोई चाँद झांकता आता है
तुम तो प्यार की भाषा हो
प्रिय तुम मेरी कविता हो
तेरी पायल की रन झुन जब
मन के सितार पर बजती है
मन मतवाला हो उठता है
जब गीत कोई तुम गाती हो
तुम प्यार का मीठा झरना हो
प्रिय तुम मेरी कविता हो
तन मन की थकन प्रिय
बस पल भर में मिट जाती है
जब मुस्काकर कुछ शरमाकर
तुम प्यार की बातें करती हो
जीवन की प्रिय तुम आशा हो
प्रिय तुम तो मेरी कविता हो