ये बसंती हवा आज पागल सी लगती है
फूलों की गंध लिए
दौड़ती सी भागती सी
पलभर ठहरती है
पेड़ों की फुनगी पर
मगर दुसरे ही पल दूर भाग जाती है
ये बसंती हवा आज पागल सी लगती है
धान के खेतों को
छेड़ छेड़ जाती है
बलखाती आती है
इतराती जाती है
कोयल की कुकू संग स्वर को मिलाती है
ये बसंती हवा आज पागल सी लगती है
अभी यहाँ अभी वहां
पता नहीं पल में कहाँ
कितनी है चंचल यह
कितनी मतवाली है
मन में जाने कैसी प्यास जगा जाती है
ये बसंती हवा आज पागल सी लगती है
फूलों के कलियों के
कानों में जाने क्या
भवरों का संदेशा
चुपके कह जाती है
सरसों के फूलों संग खिल खिल कर हंसती है
ये बसंती हवा आज पागल सी लगती है
बरगद की छाया में
थके हुए पंथी पास
पलभर को रूककर
साडी थकन चुरा जाती है
ये बसंती हवा आज पागल सी लगती है